‘भक्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति, भक्ति काल का परिचय व भक्ति आन्दोलन के उदय की परिस्थितियाँ क्या थी इन सभी विषयों पर विस्तारपूर्वक से पढ़ेगे। आप हिन्दी साहित्य के सभी कालो के बारे में इसी वेबसाइट superrealstory.com पर पढ़ सकते हैं। यदि आप अपना कोई सुझाव देना चाहते है तो हमें email भी कर सकते हैं। चलिए अब हम भक्तिकाल के बरे में पढ़ना शुरु करते है।
भक्तिकाल का परिचय
‘भक्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ : –
मोनयर विलियम्स के अनुसार ‘भक्ति’ शब्द संस्कृत की ‘भज’ धातु मे ‘क्तिन’ प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ है – ईश्वर के ऐश्वर्य में भाग लेना । उल्लेख : – ‘ भक्ति का उल्लेख सबसे पहले श्वेताश्वेतर उपनिषद् में मिलता है।
” द्राविड़े चाहं उत्पन्ना जाता कर्णाटके वृद्धिगता ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास के विकासात्मक वर्गीकरण में द्वितीय चरण को मध्यकाल कहते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने वि. सं. 1375 – 1700 तक माना है। इस काल में भक्ति भावना प्रधान थी। मध्यकाल को दो भागों में बाँटा गया है : – पूर्व मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल । पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल एवं उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहते है। डॉ. ग्रियर्सन भक्तिकाल को 15 वीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण कहते है। जार्ज ग्रियर्सन ने ही भक्तिकाल को स्वर्ण काल कहा । भक्ति का प्रचार सर्वप्रथम दक्षिण भारत (केरल) के आलवार संतो द्वारा हुआ । 9 वीं शताब्दी में .आलवार ही भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक रहे। आलवार तमिल भाषा का शब्द है इसका अर्थ है आध्यात्मिक ज्ञान । इनकी संख्या 12 था और यह विष्णु के उपासक थे। आलवार के सहज सरल गीत तमिल में लिखे हुए है। भक्तिकालीन साहित्य सबसे पहले तमिल में लिखा गया। तमिल भाषा मे लिखा ग्रंथ ‘ नलियार दिव्य प्रबंधन ‘ (4000 पद ) इसे तमिल वेद भी कहा जाता है। ‘ नलियार दिव्य प्रबंधन ‘ रंगनाथ मुनि द्वारा लिखा गया ।
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