

हिंदी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा
हिंदी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा आज हम इसी के बारे में बात करेगे । राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा होती है जबकि राजभाषा का स्थान राज्यों में आता है । राष्ट्रभाषा का शाब्दिक अर्थ तो केवल इतना ही है कि वह राष्ट्र की भाषा है किन्तु एक राष्ट्र में तो कई भाषाएँ हो सकती है।
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राष्ट्रभाषा :
राष्ट्रभाषा से हमारा तात्पर्य उस भाषा से है जो राष्ट्रीय एकता एवं अन्तरराष्ट्रीय संवाद आदि विभिन्न पक्षों में पूर्ण होती है। अर्थात जब राष्ट्र की जनता स्थानीय एवं तत्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही उस देश की राष्ट्रभाषा है। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने ऐसी ही समृद्ध और सर्वस्वीकृत भाषा को राष्ट्रभाषा का अभिदान प्रदान किया है। ” जब कोई बोली आदर्श भाषा बनने के बाद भी उन्नति करती है और महत्वपूर्ण बन जाती है तथा पूरे राष्ट्र या देश में भी उसका प्रयोग सार्वजनिक कामों आदि में होने लगता है तो वह राष्ट्रभाषा का पद पा लेती है।” राष्ट्रभाषा के प्रति भारतीय मन्तव्य आंकलन करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा ने संविधान निर्माण के दो दशक बाद एक टिप्पणी की थी जो कदाचित आज भी गैर तार्किक नहीं लगती है। उनके वाक्यांश हैं ” अंग्रेजी भारत की राष्ट्रभाषा रहे तो अच्छा। दूसरे देशों के सामने शर्म के मारे उसे राष्ट्रभाषा न कह सके और झक मारकर हिंदी का व्यवहार करता पड़ें, तो अंग्रेजी और हिंदी दोनों को ही राष्ट्रभाषा का दर्जा देना चाहिए।” भारतीय संविधान के बहुआयामी व्यक्तित्व महात्मा गांधी जी समृद्ध प्रान्तीय भाषाओं की जागरणशीलता के समर्थक थे यद्यपि वे अहिंदी प्रांत के निवासी थे। आधुनिक भारतीय भाषाओं में उनका ध्यान हिंदी पर टिका तथा उनकी समृद्धि और राष्ट्रीय यशस्विता के प्रति निरंतर चिन्तनशील बने रहें। भाषा विचार क्रम में उन्होंने कहा – ” सबसे पहला और जरूरी काम करना चाहिए कि भारत को जिन समृद्ध प्रान्तीय भाषाओं का वरदान मिला है, उन्हें फिर से जायज किया जाय।” तात्पर्य यह है कि ‘ राष्ट्र से जिस किसी का सम्बन्ध होगा वह अवश्य ही राष्ट्रभाषा का सत्कार जमकर करेगा।’


हिंदी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा
हिंदी का राष्ट्रभाषा के रूप में विकास
राष्ट्रभाषा सारे देश की संपर्क भाषा होती है। हिंदी दीर्घकाल से सारे देश की जन जन की पारस्परिक संपर्क की भाषा रही है, यह केवल उत्तर भारत की ही भाषा नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। यही नहीं अहिंदी भाषी राज्यों में भक्त संत कवियों जैसे असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता तथा बंगाल के चैतन्य आदि ने हिंदी भाषा को ही अपने धर्म व साहित्य का माध्यम बनाया था। यही नहीं अंग्रेजी विद्वानों ने भी हिंदी की महत्ता को स्वीकार करते हुए उसके विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया तथा मुक्त कठ से हिंदी के महत्व और विकास को सराहा सी . टी. मेटकाफ 1806 में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलकाइस्ट को लिखा “भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा तक मैने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है।” जार्ज ग्रियर्सन ने ‘हिंदी को आम बोलचाल की महाभाषा कहा है ।”
राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के विकास के लिए किये गये कार्य
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के काल में हिंदी भाषा को विकासित करने तथा राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने हेतु विभिन स्तरों पर व्यापक प्रयास हुए, यहाँ उनका उल्लेख अग्रलिखित है : –
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1. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा (तमिलनाडु) :
भारत के लगभग प्रत्येक राज्या में ऐसी संस्थाएँ काम कर रही है जो लोगों को हिंदी सिखाती है तथा हिंदी को लोकप्रिय बनाने का कार्य कर रही है। हिंदी का कट्टर विरोध करने वाले तमिलनडु में भी यह संस्था वर्षों से कार्य कर रही है।
2 . गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद
इसकी स्थापना महात्मा गांधी जी ने की थी। इसमें अंग्रेजी शिक्षा का बहिष्कार करने वाले राष्ट्रवादी युवकों के लिए हिंदी माध्यम से अध्ययन की व्यवस्था की गई थी। भारत सरकार से विद्यापीठ को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया है।
3 . राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा
यह समिति सन् 1936 से कार्यान्वित है । इसकी शाखाएँ भारत के लगभग प्रत्येक राज्य के अलावा विदेशों में भी है। इस समिति की राष्ट्रभाषा तथा राष्ट्रभारती नाम की दो मासिक पत्रिकाएं भी प्रकाशित होती है यह समिति प्रतिवर्ष राष्ट्रभाषा प्रचार सम्मेलन आयोजित कराती है।
4 . हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद
इसका कार्य क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र है। यह हिंदी के प्रचार – प्रसार की ओर संलग्न है साथ ही साहित्य के प्रकाशन में भी इसकी रुचि है । इसमें लगभग 600 केन्द्रों पर हिंदी शिक्षण की व्यवस्था है।
5. असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति
यह समिति ही अहिंदी क्षेत्र में कार्यरत है और इसका क्षेत्र आसम, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड तथा मिजोरम है। परीक्षा आयोजित कराने हेतु इसके केन्द्र इस सम्पूर्ण क्षेत्र मैं फैले हुए है। जिनकी संख्या लगभग 750 है।
6. दक्षिण भारत प्रचार सभा चेन्नई
डॉ. रामनाथ के अनुसार, इसकी स्थापना सन् 1918 में गाधी जी की प्रेरणा से की गई थी । गांधी जी इसके आजीवन अध्यक्ष रहे थे। यह संस्था सम्पूर्ण अहिंदी भाषी दक्षिण में हिंदी का प्रचार प्रसार बडी निष्ठा से करती आ रही है। हिंदी प्रचार समाचार इसका पत्र है। हिंदी प्रचार की दृष्टि से इस संस्था का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कुछ अन्य महत्वपूर्ण संस्थाएँ अग्रांकित है :-
* हिंदी विद्यापीठ मुंबईं
* काशी नागरी प्रचारिणी सभा
* केन्द्रीय सचिवालय हिंदी परिषद
* केन्द्रीय हिंदी संस्थान आगरा


हिंदी राष्ट्रभाषा है या राजभाषा
राष्ट्रभाषा की विशेषताएँ
बोधगम्यता
हिंदी अत्यंत सरल तथा बोधगम्य है इसमें जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और वही पढ़ा जाता है । इसी से सामान्य व्यक्ति के लिए भी यह भाषा सरल व बोधगम्य है।
पुष्ट सांस्कृतिक परम्परा :-
हिंदी साहित्य का इतिहास पृष्ठ सांस्क्रतिक परम्पराओं का इतिहास है। रासो साहित्य में वीरता तथा शौर्य का गौरव तो भक्तिकालीन साहित्य में आध्यात्मिक मूल्यों का चिंतन तो रीतिकालीन हिंदी कविता तो आनंदवादी दृष्टिकोण का परिपोषक रही है। शब्द भण्डार की व्यापकता और गतिशीलता प्राचीन भारतीय भाषाओं के साथ – साथ अन्य प्रान्तीय भाषाओं से मिलकर हिंदी ने अपने शब्द भण्डार को व्यापक और विशाल बना दिया है और अब तो विदेशी भाषाओं के शब्द भी हिंदी के अंग बनकर प्रयुक्त होने लगे है । लिपि की वैज्ञानिकता हिंदी के लिए जिस देवनागरी का प्रयोग होता है वह पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि है। इस लिपि में धनि व लिपि का सुन्दर सामंजस्य है जो अन्यत्र नहीं मिलता। कहने का आशय यह है कि इसमें एक ध्वनि के लिए एक ही संकेत चिन्ह है। साथ ही अधिकारिणी है। राष्ट्रीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व – हिंदी भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। इसमें आर्य द्रविड़ और न जाने कितनी जातियों का अंशदान है। इसी कारण यह राष्ट्रीय संस्कृति के प्रतिनिधित्व में सक्षम है।
राष्ट्रभाषा के समक्ष चुनौती और समाधान :
1. चुनौती : – विभिन्न प्रान्तों के निवासियों विशेषकर आहिंदी क्षेत्र के निवानियों को यह भय है कि यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर दिया और वह राजकाज में पूर्णतः व्यवहरत होने लगी तो वे राजकीय नौकरियाँ पाने से वंचित रह जाएंगे ।
समाधान : – अहिंदी भाषी प्रान्तों के लोगो के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं को अंग्रेजी और हिंदी दोनों में आयोजित किया जाय और दूसरे प्रत्येक प्रान्त की संख्या भी निर्धारित की जा सकती है।
2. चुनौती : – एक चुनौती यह भी है कि हिंदी भाषी प्रान्त के व्यक्तियो को केवल एक ही भाषा सीखनी पड़ेगी जबकि दक्षिण प्रान्त के व्यक्तियों को दो भाषाएँ सीखनी पड़ेगी, एक उनकी अपनी भाषा और हिंदी।
समाधान :- यहाँ तक एक भाषा का तर्क है यह निराधार है । क्या अब दो भाषा, सीखनी नहीं पड़ती है एक प्रान्तीय भाषा और दूसरी अंग्रेजी । अतः यह तर्क थोथा है और गुलामी की मानसिकता से ग्रसित है।
3 . चुनौती :- राष्ट्रभाषा हिंदी के विरोधी हिंदी पर भी आरोप लगाते है कि वह क्लिष्ट है, उर्दू समर्थक भी उसमें स्वर मिला रहे है। परन्तु यह आरोप भी नितान्त गलत है।
समाधान :- महात्मा गांधी जी ने यह स्वीकार किया था कि हमारी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना हितकर नहीं है। गांधी जी स्वीकार करते हैं कि स्थानीय भाषा के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करना अधिक सरल है। जितना श्रम अंग्रेजी सीखने के लिए किया जाता है यदि उसने भाधा श्रम हिंदी सीखने में किया जाए तो हिंदी बडी सुगमता से सीखी जा सकती है।
4 . चुनौती : – हिंदी विरोध में एक तर्क यह भी दिया जाता है कि हिंदी तकनीकी दृष्टि से अक्षम है। उसमें ज्ञान विज्ञान तकनीकी न्यायालय और सरकारी कार्यालयों के उपयोग में आने वाली पर्याप्त पारिभाषित शब्दावली उपलब्ध नहीं है।
समाधान :- आज की वर्तमान स्थिति में कार्यालयों में सारे काम हिंदी में चल रहे हैं, तकनीकी विषय में हिंदी में ग्रन्थ लिखे जा रहे है और हिंदी के पास एक सुविकसित पारिभाषित शब्दावली उपलब्ध है।
चुनौती : – हिंदी के सम्बन्ध में एक भ्रान्ति यह भी फैलाई गई है कि शिक्षा का माध्यम हिंदी होने से शिक्षा का स्तर गिरेगा। क्या यह तर्क किसी के भी गले से उतरने वाला है।
समाधान :- इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी जी ने स्पष्ट मत व्यक्त किया था कि यदि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी न होकर प्रान्तीय भाषा रहे तो बालक विषय की अधिक तर्क संगत ढंग से सीख और समझ सकता है क्योंकि शिक्षा में गिरावट का कारण हिंदी नहीं हमारी शिक्षा प्रणाली है जो अंग्रेजी की ही देन है।